Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
४. अथवा पूर्वोक्त जघन्य दस बंधहेतुओं में पृथ्वीकाय आदि छह काय में से कोई भी दो काय के बंध को गिनने पर ग्यारह हेतु होते हैं। क्योंकि दस हेतुओं में पहले से ही एक काय का वध ग्रहण किया गया है और यहाँ एक काय का वध और मिलाया है । जिससे दस के साथ एक को और मिलाने से ग्यारह हेतु हुए। छह काय के द्विक्संयोग में पन्द्रह भंग होते हैं । इसलिये कायघात के स्थान पर (१५) पन्द्रह का अंक रखना चाहिये, जिससे मिथ्यात्व के पांच भेदों के साथ दो काय की हिंसा के द्विक्संयोग से होने वाले पन्द्रह भंगों के साथ गुणा करने पर (१५×५ = ७५) पचहत्तर भंग होते हैं और इन पचहत्तर भंगों का पांच इन्द्रियों के असंयम द्वारा गुणा करने पर (७५ x ५ = ३७५) तीन सौ पचहत्तर भंग हुए। इन तीन सौ पचहत्तर को युगलद्विक से गुणा करने पर (३७५ ×२=७५० ) सात सौ पचास भंग हुए और इन सात सौ पचास को तीन वेदों से गुणा करने पर (७५०X३ = २,२५०) दो हजार दो सौ पचास भंग हुए और इनको चार कषाय से गुणित करने पर (२,२५० ० X ४ = ६००० ) नौ हजार हुए और इन नौ हजार को दस योगों के साथ गुणा करने से (६०००×१० = ६०,०००) नब्बे हजार भंग हुए ।
इस प्रकार ग्यारह बंधहेतु के चार प्रकार हैं और मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारों के कुल मिलाकर (३६) ,०००/- ३६,०००+ ४६,८००+१०,००० = २,०८,८००) दो लाख आठ हजार आठ सौ भंग होते हैं ।
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इस प्रकार से ग्यारह बंधहेतुओं के भंगों का विचार करने के पश्चात् अब बारह बंधहेतुओं के भंगों को बतलाते हैं ।
१. पूर्वोक्त जघन्य दस बंधहेतुओं में भय और जुगुप्सा, दोनों का प्रक्षेप करने पर बारह हेत होते हैं। इसके भी पूर्व में कहे गये अनुसार छत्तीस हजार भंग होते हैं ।
२. अथवा अनन्तानुबंधी और भय का प्रक्षेप करने पर भी बारह बंधहेतु होते हैं । लेकिन यहाँ अनन्तानुबंधी के उदय में तेरह योगों को लेने के कारण पहले की तरह (४६८००) छियालीस हजार आठ सौ भंग हुए ।
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