Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह इन्द्रिय की अविरति वाला होता है। इसलिए तीस को पांच इन्द्रियों की अविरति के साथ गुणा करने पर (३०४५=१५०) एक सौ पचास भेद हुए।
ये एक सौ पचास भेद हास्य-रति के उदय वाले होते हैं और दूसरे एक सौ पचास भेद शोक-अरति के उदय वाले होते हैं। इसलिए उनका युगलद्विक से गुणा करने पर (१५०४२३००) तोन सी भेद हए।
ये तीन सौ भेद पुरुषवेद के उदयवाले होते हैं, दूसरे तीन सौ भेद स्त्रोवेद के उदयवाले और तीसरे तीन सौ भेद नपुंसकवेद के उदयवाले होते हैं । अतएव पूर्वोक्त तीन सौ भेदों का वेदों के साथ गुणा करने पर (३००४३= ६००) नौ सौ भंग हुए।
ये नौ सो भेद अप्रत्याख्यानावरणादि तीन क्रोध वाले और इसी प्रकार दूसरे, तीसरे और चौथे नौ सौ अप्रत्याख्यानावरणादि मान, माया और लोभ वाले होते हैं । इसलिये नौ सौ भेदों को चार कषायों से गुणा करने पर (६००x४=३६००) छत्तीस सौ भेद हुए।
उक्त छत्तीस सौ भेद योग के दस भेदों में से किसी न किसी योग से युक्त होते हैं । अतः छत्तीस सौ भेदों को दस योगों से गुणा करने पर (३६००x१०=३६०००) छत्तीस हजार भेद हए । ___ इस प्रकार से एक समय में एक जीव में प्राप्त होने वाले जघन्य दस बंधहेतुओं के उसी समय में अनेक जीवों की अपेक्षा उन मिथ्यात्वादि के भेदों को बदल-बदल कर प्रक्षेप करने पर छत्तीस हजार भंग' होते १. दिगम्बर कार्मग्रन्थिक आचार्यों ने अनेक जीवों की अपेक्षा मिथ्यात्वगुण
स्थान के जघन्यपद में ४३२०० भंग बतलाये हैं। ये भंग इन्द्रिय असंयम पाँच की बजाय छह भेद मानने की अपेक्षा जानना चाहिये । जिनकी अंकरचना का प्रारूप इस प्रकार है-५X६x६x४४३x२x१० = ४३२०० । यह कथन विवक्षाभेद का द्योतक है । यहाँ ३६००० भंग मन के असंयम को पांच इन्द्रियों के असंयम में गभित कर लेने से इन्द्रिय असंयम के पांच भेद मानकर कहे हैं।
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