Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
का उदय होने पर नीचे के क्रोधादि का अवश्य उदय होता है । इसीलिए यहाँ अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों में से क्रोधादित्रिक का ग्रहण किया है तथा दस योगों में से कोई भी एक योग । इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान में जघन्य से एक साथ दस बंधहेतु होते हैं ।
सरलता से समझने के लिए जिनका अंकस्थापनाविषयक प्रारूप इस प्रकार जानना चाहिए
मि०
का०
कषाय
वे०
१
१
३
१
१
प्रश्न - योग के पन्द्रह भेद हैं । तो फिर यहाँ पन्द्रह योगों की बजाय दस योगों में से एक योग कहने का क्या कारण है ?
२२
इ०
१
युगलद्विक योग०
२
उत्तर - मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में आहारकट्टिक हीन शेष तेरह योग संभव हैं । क्योंकि यह पूर्व में बताया जा चुका है कि आहारक और आहारकमिश्र, ये दोनों काययोग लब्धिसम्पन्न चतुर्दश पूर्वधर को आहारकलब्धिप्रयोग के समय होते हैं । इसलिए आहारकद्विक काय - योग मिथ्यादृष्टि में संभव हो नहीं तथा उसमें भी जब अनन्तानुबंधी कषाय का उदय न हो तब दस योग ही संभव हैं ।
यदि यह कहो कि अनन्तानुबंधी के उदय का अभाव मिथ्यादृष्टि के कैसे सम्भव है ? तो इसका उत्तर यह है कि किसी जीव ने सम्यग्दृष्टि होने के पूर्व अनन्तानुबंधो की विसंयोजना की ओर वह मात्र विसंयोजना करके ही रुक गया, किन्तु विशुद्ध अध्यवसाय रूप तथाप्रकार की सामग्री के अभाव में मिथ्यात्व आदि के क्षय के लिए उसने प्रयत्न नहीं किया और उसके बाद कालान्तर में मिथ्यात्वमोह के उदय से मिथ्यात्वगुणस्थान में गया और वहाँ जाकर मिथ्यात्वरूप हेतु के द्वारा अनन्तानुबंधी का बंध किया और बांधे जा रहे उस अनन्तानुबंधी में प्रतिसमय शेष चारित्रमोहनीय के दलिकों को संक्रमित किया और संक्रमित करके अनन्तानुबंधी के रूप में परिणमाया, अतः जब तक संक्रमावलिका पूर्ण न हो तब तक मिथ्यादृष्टि होने और अनन्तानुबंधी को बाँधने पर भी एक आवलिका कालप्रमाण
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