Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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२०
सरलता से समझने के लिए जिनका प्रारूप इस प्रकार है
मि.
अवि.
ह
ह
११ से १६१० से १५ १० से १५
गुणस्थान मि.
जघन्यपद १०
मध्यमपद
११ से १७ उत्कृष्टपद १८
सा.
१०
दे.
प्र. अअअनि सू उक्षीस अयो ८ ५, ५ ५ २ २ १ १ १ x से १३६, ६६ × १ १ १ x
१७
१६ १६ १४७७७ २१११× इस प्रकार से प्रत्येक गुणस्थान में एक जीव की अपेक्षा एक समय में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य वंधहेतुओं को जानना चाहिए। 1
अब प्रत्येक गुणस्थान में जघन्यादि की अपेक्षा बताये गये बंधहेतुओं के कारण सहित नाम बतलाते हैं । सर्वप्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान के जघन्यपदभावी हेतुओं का निर्देश करते हैं ।
मिच्छत्त एक्कायादिघाय अन्नयरअक्खजुयलुदओ । drea कसायाण य जोगस्सणभयदुगंछा वा ॥७॥ शब्दार्थ - मिच्छत्त—मिथ्यात्व, एक्ककायादिघाय - एक कायादिघात, अन्नयर - -अन्यतर अक्ख -- इन्द्रिय, जयल - युगल, उदओ - उदय, वेयस्सवेद का, कसायाण – कषाय का य-और, जोगस्स - योग का, अण-- अनन्तानुबंधी, भयदुगंछा-भय, जुगप्सा, वा--1 - विकल्प से ।
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गाथार्थ - मिथ्यात्वगुणस्थान में एक मिथ्यात्व एक कायादि का घात, अन्यतर इन्द्रिय का असंयम, एक युगल, अन्यतर वेद, अन्यतर क्रोधादि कषायचतुष्क, अन्यतर योग इस तरह जघन्यतः दस बंधहेतु होते हैं और अनन्तानुबंधी तथा भय, जुगुप्सा विकल्प से उदय में होते हैं । अर्थात् कभी उदय में होते हैं और कभी नहीं होते हैं ।
पंचसंग्रह
दिगम्बर कर्मग्रन्थों में भी इसी प्रकार से प्रत्येक गुणस्थान में एक जीव को अपेक्षा एक समय में बंधहेतुओं का निर्देश किया है
दस अट्ठारस दसय सत्तर णव सोलसं च दोन्हं पि । अट्ठ य चउदस पणयं सत्त तिए दु ति दु एगेगं ॥
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- पंचसंग्रह ४ | १०१ - गो-कर्मकाण्ड ७६२
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