Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु - प्ररूपणा अधिकार : गाथा
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एक, एक हेतु है और उत्कृष्टतः उपयुक्त संख्या में अनुक्रम से आठ, सात, सात, सात, छह, यतित्रिक में दो, दो, दो और नौवें में एक हेतु के मिलाने से प्राप्त संख्या जितने होते हैं ।
विशेषार्थ - गाथा के पूर्वार्ध द्वारा अनुक्रम से एक जीव के एक समय में मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में जघन्यतः प्राप्त बंधहेतु बतलाये हैं और उत्तरार्ध द्वारा उत्कृष्टपद की पूर्ति के लिये मिलाने योग्य हेतुओं की संख्या का निर्देश किया हैं कि मिथ्यादष्टि आदि गुणस्थानों में जघन्य से दस आदि और उत्कृष्ट से आठ आदि संख्या को मिलाने से अठारह आदि बंधहेतु होते हैं । जिनका तात्पर्यार्थ इस प्रकार है
पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में जघन्यतः एक समय में एक जीव के एक साथ दस, उत्कृष्टतः अठारह और मध्यम ग्यारह से लेकर सत्रह पर्यन्त बंधहेतु होते हैं। इसी प्रकार उत्तर के सभी गणस्थानों में मध्यमपद के बंधहेतुओं का विचार स्वयं कर लेना चाहिये ।
सासादन नामक दूसरे गुणस्थान में जघन्य से दस, उत्कृष्ट सत्रह, मिश्रगुणस्थान में जघन्य नौ, उत्कृष्ट सोलह अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में जघन्य नौ, उत्कृष्ट सौलह, देशविरत गुणस्थान में जघन्य आठ, उत्कृष्ट चौदह, यतित्रिक - प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानों में जघन्य पांच पांच पांच और उत्कृष्ट सात, सात, सात, अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में जघन्य दो उत्कृष्ट तीन सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में जघन्य और उत्कृष्ट दो बंधहेतु होते हैं और शेष रहे उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगिकेवल गुणस्थानों में जघन्य और उत्कृष्ट का भेद नहीं है । अतः प्रत्येक में अजघन्योत्कृष्ट एक-एक ही बंधहेतु है ।
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१ सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानों में उनके मिलाने योग्य संख्या नहीं होने से उसका संकेत नहीं किया है । अतः इन गुणस्थानों में गाथा के पूर्वार्ध में कही गई बंधहेतुओं की संख्या ही समझना चाहिए ।
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