Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५
१७ रकमिश्र, इन दो योगों को कम करने पर चौबीस बंधहेतु ' अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में होते हैं ।
आठवें अपूर्वकरणगणस्थान में आहारककाययोग और वैक्रियकाययोग, ये दो योग भी नहीं होते हैं। अतः अप्रमत्तसंयतगुणस्थानवर्ती चौबीस बंधहेतुओं में से इन दो योगों को कम करने पर शेष बाईस ही बंधहेतु अपूर्वकरणगुणस्थान में होते हैं।
हास्यादिषट्क नोकषायों का अपूर्वकरणगुणस्थान में ही उदयविच्छेद होने से नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगणस्थान में पूर्वोक्त बाईस बंधहेतुओं में से इनको कम करने पर सोलह बंधहेत पाये जाते हैं तथा अनिवत्तिबादरसंपरायगणस्थान में वेदत्रिक, संज्वलनत्रिकसंज्वलन क्रोध, मान. माया का उदयविच्छेद हो जाने से पूर्वोक्त सोलह में से वेदत्रिक और संज्वलनत्रिक इन छहः को कम करने पर सूक्ष्मसंपगय नामक दसवें गुणस्थान में दस बंधहेतु होते हैं।
संज्वलन लोभ का सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में उदयविच्छेद हो जाने से ग्यारहवें उपशांतमोहगुणस्थान में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय के सम्पूर्ण भेदों और योग के भेदों में से कार्मण, औदारिकमिश्र, वैक्रिय. द्विक, आहारकद्विक. इन छह भेदों का भी उदयविच्छेद पूर्व में हो जाने से शेष रहे योगरूप नौ वंधहेत होते हैं। यही नौ बंधहेतु बारहवें क्षीणकषायगुणस्थान में भी जानना चाहिये ।
सयोगिकेवली गुणस्थान में सत्यमनोयोग, असत्यामषामनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्यामषावचनयोग, कार्मणकाययोग, औदारिककाययोग और औदारिकमिश्रकाययोग, ये सोत बंधहेत होते हैं। इनमें से केवलिसमुद्घात के दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र और
१ यद्यपि यहाँ आहारक की तरह वैक्रियकाययोग कहा है। परन्तु तत्त्वार्थ
मूत्र २/४४ की सिषि गणि टीका में वैक्रिय शरीर बनाकर उत्तरकाल में अप्रमत्त गुणस्थान में नहीं जाता है, ऐमा कहा है । अतएव इस अपेक्षा से अप्रमत्त गुणस्थान में वैक्रियकाययोग भी घटित नहीं होता है ।
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