Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
काय को अविरति नहीं होती है और इस गुणस्थान में मरण असंभव होने से विग्रहगति और अपर्याप्त अवस्था में संभव कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग भी नहीं होते हैं । अतएव पूर्वोक्त छियालीस में से अप्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क, त्रसकाय की अविरति और
औदारिकमिश्र, कार्मण, इन सात हेतुओं को कम करने पर उनतालीस बंधहेतु होते हैं।
प्रश्न-देशविरत श्रावक मात्र संकल्प से उत्पन्न असकाय की अविरति से विरत हुआ है, किन्तु आरम्भजन्य अविरति से विरत नहीं हुआ है । आरम्भजन्य त्रस की अविरति तो श्रावक में है ही। तो फिर बंधहेतुओं में से त्रस-अविरति को कैसे अलग कर सकते हैं ?
उत्तर-उपयुक्त दोष यहाँ घटित नहीं होता है। क्योंकि श्रावक यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाला होने से आरम्भजन्य बस की अविरति होने पर भी उसकी विवक्षा नहीं की है ।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान में छव्वीस बंधहेतु हैं। छव्वीस बंधहेतुओं को मानने का कारण यह है कि इस गुणस्थान में अविरति सर्वथा नहीं होती है और प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का भी उदय नहीं है । किन्तु लब्धिसम्पन्न चतुर्दश पूर्वधर मुनियों के आहारकद्विक संभव होने से ये दो योग होते हैं । अतः अविरति के ग्यारह भेद और प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क, कुल पन्द्रह बंधहेतुओं को पूर्वोक्त उनतालीस में से कम करने और आहारक, आहारकमिश्र, इन दो योगों को मिलाने पर छव्वीस बंधहेतु माने जाते हैं तथा अप्रमत्तसंयत लब्धिप्रयोग करने वाले नहीं होने से आहारकशरीर या वैक्रियशरीर का आरम्भ नहीं करते हैं। जिससे उनमें आहारकमिश्र अथवा वैक्रियमिश्र, ये दो योग नहीं होते हैं । अतः पूर्वोक्त छव्वीस में से वैक्रियमिश्र और आहा
१ त्रसका य-अविरति को पूर्व में कम कर देने से यहाँ ग्यारह अविरति भेद
कम किये हैं।
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