Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार, गाथा ५
सासादनगुणस्थान में पांच प्रकार के मिथ्यात्व का अभाव होने से उनके बिना शेष पचास बंधहेतु होते हैं।
तीसरे मिश्रगुणस्थान में तेतालीस बंधहेतु हैं। यहाँ अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क, कार्मण, औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र, ये सात बंधहेतु भी नहीं होते हैं । इसलिए पूर्वोक्त पचास में से इन सात को कम करने पर शेष तेतालीस बंधहेतु तीसरे गुणस्थान में माने जाते हैं। अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क आदि सात हेतुओं के न होने का कारण यह है कि 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं-सम्यगमिथ्यादृष्टि काल नहीं करता है' ऐसा शास्त्र का वचन होने से मिश्रगुणस्थानवी जीव परलोक में नहीं जाता है। जिससे अपर्याप्त अवस्था में संभव कार्मण और औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र , ये तीन योग नहीं पाये जाते हैं तथा पहले और दूसरे गुणस्थान तक ही अनन्तानुबंधी कषायों का उदय होता है । इसलिये अनन्तानुबंधी चार कषाय भी यहाँ संभव नहीं हैं । अतएव अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क, कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, इन सात हेतुओं को पूर्वोक्त पचास में से कम करने पर शेष तेतालीस बंधहेतु तीसरे गुणस्थान में होते हैं। __ अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान में छियालीस बंधहेतु होते हैं। क्योंकि इस गुणस्थान में मरण संभव होने से परलोकगमन भी होता है, जिससे तीसरे गुणस्थान के बंधहेतुओं में से कम किये गये और अपर्याप्त-अवस्थाभावी कार्मण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग यहाँ सम्भव होने से उनको मिलाने पर छियालीस बंधहेतु होते हैं।
देशविरतगुणस्थान में उनतालीस बंधहेतु होते हैं । इसका कारण यह है कि यहाँ अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय नहीं है तथा त्रस
१ दिगम्बर कर्मग्रन्थों (पंच-संग्रह, गाथा ८० और गो. कर्मकाण्ड, गाथा ७८६)
में भी आदि के चार गुणस्थानों में नाना जीवों और समय की अपेक्षा इसी प्रकार से उत्तर बंधहेतुओं की संख्या का निर्देश किया है।
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