Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
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सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि इन दूसरे, तीसरे और चौथे तीन गुणस्थानों में अविरति कषाय और योग रूप तीन हेतुओं द्वारा बन्ध होता है | क्योंकि मिथ्यात्व का उदय पहले गुणस्थान में ही होता है । अतः इन गुणस्थानों में मिथ्यात्व नहीं होने से अविरति आदि तीन हेतु पाये जाते हैं ।
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देशविरत में भी यही अविरति आदि पूर्वोक्त तीन हेतु हैं, किन्तु उगे कुछ न्यूनता है । क्योंकि यहाँ त्रस जीवों की अविरति नहीं होती है । यद्यपि श्रावक काय की सर्वथा अविरति से विरत नहीं हुआ है, लेकिन हिंसा न हो इस प्रकार के उपयोगपूर्वक प्रवृत्ति करता है, जिसकी यहाँ विवक्षा नहीं की है। इसीलिए इस गुणस्थान में 'कुछ न्यून तीन हेतुओं का संकेत किया है । ग्रन्थकार आचार्य ने तो गाथा में इसका कुछ भी संकेत नहीं किया है, लेकिन सामर्थ्य से ही समझ लेना चाहिए | क्योंकि इस गुणस्थान में न तो पूरे तीन हेतु ही कहे हैं और न दो हेतु ही । इसलिए यही समझना चाहिए कि पांचवें देशविरतगुणस्थान में तीन से न्यून और दो से अधिक बंधहेतु हैं ।
'दुगपच्चओ पमत्ता' अर्थात् छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त कषाय और योग, इन दो हेतुओं द्वारा कर्मबंध होता है । क्योंकि प्रमत्त आदि गुणस्थान सम्यक्त्व एवं विरति सापेक्ष हैं। जिससे इनमें मिथ्यात्व ओर अविरति का अभाव है । इसीलिए प्रमत्तसंयत आदि सूक्ष्मसंपराय पर्यन्त पांच गुणस्थानों में कषाय और योग, ये दो बंधहेतु पाये जाते हैं ।
'उवसंता जोगपच्चइओ' अर्थात् ग्यारहवें उपशांतमोहगुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगिकेवलीगुणस्थान पर्यन्त तीन गुणस्थानों में मात्र योगनिमित्तक कर्मबन्ध होता है । क्योंकि इन गुणस्थानों में कषाय भी नहीं होती हैं । अतः योगनिमित्तक कर्मबन्ध इन तीन गुणस्थानों में माना जाता है तथा अयोगिकेवली भगवंत किसी भी बन्ध
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