Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
पंचसंग्रह
_भाभिग्राहक मिथ्यात्व-वंश-परम्परा से जिस धर्म को मानते आये हैं, वही धर्म सत्य है और दूसरे धर्म सत्य नहीं हैं, इस तरह असत्य धर्मों में से किसी भी एक धर्म को तत्त्वबुद्धि से ग्रहण करने से उत्पन्न हुए मिथ्यात्व को आभिग्रहिक मिथ्यात्व कहते हैं। इस मिथ्यात्व के वशीभूत होकर मनुष्य वोटिक आदि असत्य धर्मों में से कोई भी एक धर्म ग्रहण-स्वीकार करता है और उसी को सत्य मानता है। सत्यासत्य की परीक्षा नहीं कर पाता है । ___ अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व-आभिग्रहिक मिथ्यात्व से विपरीत जो मिथ्यात्व, वह अनाभिग्रहिक है । अर्थात् यथोक्त स्वरूप वाला अभिग्रह
-किसी भी एक धर्म का ग्रहण जिसके अन्दर न हो, ऐसा मिथ्यात्व अनाभिप्रहिक कहलाता है । इस मिथ्यात्व के कारण मनुष्य यह सोचता है कि सभी धर्म श्रेष्ठ हैं, कोई भी बुरा नहीं है । इस प्रकार से सत्यासत्य की परीक्षा किये बिना कांच और मणि में भेद नहीं समझने वाले के सदृश कुछ माध्यस्थवत्ति' को धारण करता है। __ आभिग्रहिक और अनाभिग्रहिक, इन दोनों प्रकार के मिथ्यात्व में यह अन्तर है कि अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व नैसर्गिक, परोपदेशनिरपेक्ष -स्वाभाविक होता है । वैचारिक मूढ़ता के कारण स्वभावतः तत्त्व का अयथार्थ श्रद्धान होता है । जबकि आभिग्रहिक मिथ्यात्व में किसी भी कारणवश एकान्तिक कदाग्रह होता है । विचार-शक्ति का विकास होने पर भी दुराग्रह के कारण किसी एक ही दृष्टि को पकड़ लिया जाता है।
१ अभिप्राय यह है कि यह यथार्थरूप में माध्यस्थवृत्ति नहीं है। क्योंकि
सच और झूठ की परीक्षा कर सच को स्वीकार करना एवं अन्य धर्मा
भासों पर द्वष न रखना वास्तव में माध्यस्थवृत्ति है । परन्तु यहाँ तो - सभी धर्म समान माने हैं, यानि ऊपर से मध्यस्थता का प्रदर्शन किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org