Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
कषायक परिणति के योग - सम्बन्ध से संसारी जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । वह योग परिस्पन्दन के द्वारा कर्म-पुद्रगलों को आकर्षित करता है और कषायों के द्वारा स्वप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप से सम्बद्ध कर लेता है । इस सम्बद्ध करने के कारणों को बंधहेतु कहते हैं ।
विशेष रूप से समझाने के लिये शास्त्रों में अनेक प्रकार से बंधहेतुओं का उल्लेख है । जैसे कि - राग, द्वेष, ये दो अथवा राग, द्वेष और मोह, ये तीन हेतु हैं । अथवा मिथ्यात्व अविरति, कषाय और योग, ये चार अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांच बंधहेतु हैं । अथवा इन चार और पांच हेतुओं का विस्तार किया जाये तो प्राणातिपात, मषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेय, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य ( चुगली), रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग, ये अट्ठाईस बंधहेतु हैं ।
इस प्रकार संक्षेप और विस्तार से शास्त्रों में अनेक प्रकार से सामान्य बंधहेतुओं का विचार किया गया है । इसके साथ ही ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म के अपने-अपने बंधहेतु भी बतलाये हैं । लेकिन मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांचों समस्त कर्मों के सामान्य कारण के रूप में प्रसिद्ध हैं और इनके सद्भाव में ही ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म के अपने-अपने विशेषहेतु कार्यकारी हो सकते हैं । अतः इन्हीं के बारे में यहाँ विचार करते हैं ।
कर्मबंध के सामान्य हेतुओं की संख्या के बारे में तीन परम्परायें देखने में आती हैं
१ - कषाय और योग,
२- मिथ्यात्व अविरति, कषाय और योग,
३ - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ।
दृष्टिभेद से कथन - परम्परा के उक्त तीन प्रकार हैं एवं संख्या और उनके नामों में भेद रहने पर भी तात्त्विक दृष्टि से इन परम्पराओं में
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