Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
प्राक्कथन
बंधव्य क्या है ? इसका उत्तर मिल जाने पर कि कर्मरूप में परिणत हुए कार्मण वर्गणा के पुद्गल बंधव्य हैं । तब सहज ही जिज्ञासा होती है, इन कर्मों का बंध किन कारणों से होता है ? जिनका समाधान प्रस्तुत बंधहेतु-प्ररूपणा अधिकार का अभिधेय है। __यों तो जीव की बद्ध और मुक्त अवस्था सभी आस्तिक दर्शनों ने मानी है और अपना प्रयोजन निश्रेयस्-प्राप्ति स्वीकार किया है। लेकिन जैनदर्शन में बंध-मोक्ष की चर्चा जितनी विस्तृत और विशदता से हुई है, उतनी दर्शनान्तरों में देखने को नहीं मिलती है। संक्षेप में कहा जाये तो बंध और मोक्ष का अथ से लेकर इति तक प्रतिपादन करना ही जैनदर्शन का केन्द्रबिन्दु है। समस्त जैन वाङमय इसकी चर्चा से भरा पड़ा है। वहाँ, जीव क्यों और कब से बंधा है ? बद्ध जीव की कैसी अवस्था होती है ? जीव के साथ संबद्ध होने वाला वह दूसरा पदार्थ क्या है, जिसके साथ जीव का बंध होता है ? उस बंध के क्या कारण हैं ? बंध के उपादान और निमित्त कारण क्या हैं ? बंध से इस जीव का छूटकारा कैसे होता है ? बंधने के बाद उस दूसरे पदार्थ का जीव के साथ कब तक सम्बन्ध बना रहता है ? वह संबद्ध दूसरा पदार्थ जीव को अपना विपाक-वेदन किस-किस रूप में कराता है ? आदि सभी प्रश्नों का विस्तृत विवेचन किया गया है । यह विवेचन सयुक्तिक है, काल्पनिक अथवा विशृंखल नहीं है। प्रत्येक उत्तर की पूर्वापर से कड़ी जुड़ी हुई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org