Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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( २४ ) संक्लेश, माया, वंचना, धूर्तता की अधिकता दिखती है और न्यूनता होने पर भावों में विशुद्धता का स्तर उत्तरोत्तर विकसित होता जाता है। इसको एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है- कोई एक लम्पट, धूर्त, कामी व्यक्ति जघन्यतम कृत्यों को करके भी दूसरों पर दोषारोपण करने से नहीं झिझकता है। उसका स्वार्थ प्रबल होता है कि अपने अल्प लाभ के लिये दूसरों के नुकसान को नहीं देखता है। विषभरे स्वर्णकलश का रूप होता है, किन्तु अपनी प्रामाणिकता का दुन्दुभिनाद और कीर्तिध्वजायें फहराने में नहीं सकुचायेगा। अपनी प्रशंसा में स्वयं गीत गाने लगेगा। ऐसा वह क्यों करता है ? तो कारण स्पष्ट है कि वह संक्लेश की कालिमा से कलुषित है। ऐसी प्रवृत्ति करके ही वह अपने आप में सन्तोष अनुभव करता है । लेकिन इसके विपरीत जिस व्यक्ति का मानस विशुद्ध है, वह वैसे किसी भी कार्य को नहीं करेगा जो दूसरे को त्रासजनक हो और स्वयं में जिसके द्वारा हीनता का अनुभव हो।
इस प्रकार की विभिन्नतायें ही बंधहेतुओं के विकल्पों और तरतमता की कारण हैं । इन विकल्पों का वर्णन करना इस अधिकार का विषय है । अतः अब संक्षेप में विषय परिचय प्रस्तुत करते हैं। विषय परिचय अधिकार का विषय संक्षेप में उसकी प्रथम गाथा में दिया है
बंधस्स मिच्छ अविरइ कसाय जोगा य हेयवो भणिया। अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग कर्मबंध के हेतु हैं। तत्पश्चात् इन हेतुओं के अवान्तर भेदों का नामोल्लेख करके गुणस्थान और जीवस्थान के भेदों के आधार से पहले गुणस्थानों में सम्भव मूलबंधहेतुओं को बतलाने के अनन्तर उनके अवान्तर भेदों का निर्देश किया है । इस वर्णन में यह स्पष्ट किया है कि विकास क्रम से जैसे-जैसे आत्मा उत्तरोत्तर गुणस्थानों को प्राप्त करती जाती है, तदनुरूप बंध
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