Book Title: Panchsangraha Part 04
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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( २१ ) अशुभ विपाकोदय वाले कर्मों का समान रूप से बंध होता है । क्योंकि इन सबका सांकल की कड़ियों की तरह एक दूसरे से परस्पर सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। अतएव जब एक में प्रतिक्रिया होती है तब अन्यों में भी परिस्पन्दन होता है और उनमें जिस प्रकार का परिस्पन्दन होता है, तदनुरूप कार्मण वर्गणायें कर्मरूप से परिणत हो जीव प्रदेशों के साथ नीर-क्षीरवत् जुड़ती जाती हैं। इन सामान्य कारणों के साथ-साथ विशेष कारण भी हैं, जो तत्तत् कर्म के बंध में मुख्य रूप से एवं इतर के बंध में गौणरूप से सहकारी होते हैं। लेकिन वे विशेष कारण इन सामान्य कारणों से स्वतन्त्र नहीं हैं। उन्हें सामान्य कारणों का सहयोग अपेक्षित है। बंध के सामान्य कारणों के सद्भाव रहने तक विशेष कारण कार्यकारी हैं, अन्यथा अकिंचित्कर हैं।
इन सामान्य बंधहेतुओं के भिन्न-भिन्न प्रकार से किये जाने वाले विकल्प सकारण हैं। क्योंकि जिन सामान्य बंधहेतुओं के द्वारा कोई एक जीव किसी कर्म का बंध करता है, उसी प्रकार से उन्हीं बंधहेतुओं के रहते दूसरा जीव वैसा बंध नहीं करता है तथा जिस सामग्री को प्राप्त करके एक जीव स्वबद्ध कर्म का बेदन करता है, उसी प्रकार की सामग्री के रहते या उसे प्राप्त करके सभी समान कर्मबंधक जीवों को वैसा ही अनुभव करना चाहिये, किन्तु वैसा दिखता नहीं है । इसके लिए हमें संसारस्थ जीव मात्र में व्याप्त विचित्रताओं एवं विषमताओं पर दृष्टिपात करना होगा। __ हम अपने आस-पास देखते हैं अथवा जहाँ तक हमारी दृष्टि जाती है तो स्पष्ट दिखता है कि सामान्य से सभी जीवों के शरीर, इन्द्रियाँ आदि के होने पर भी उनकी आकृतियाँ समान नहीं हैं, अपितु इतनी भिन्नता है कि गणना नहीं की जा सकती है। एक की शरीर-रचना का दूसरे की रचना से मेल नहीं खाता है। उदाहरणार्थ, हम अपने मनुष्य-वर्ग को देख लें। सभी मनुष्य शरीरवान हैं, और उस शरीर में यथास्थान इन्द्रियों तथा अंग-उपांगों की रचना भी हुई है। लेकिन एक
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