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सूरि ने हेत्वाभास तीन माने हैं-असिद्ध विरुद्ध सदात्मक भी है। जैन न्याय-शास्त्र का मुख्य विषय और अनैकान्तिक । न्यायरत्न सार में भी तीन अनेकान्तवाद ही है। अतः अनेकात्मक वस्तु ही हेत्वाभास स्वीकृत हैं । आचार्य ने उभयाचार्यों का प्रमाण का विषय है । अनसरण किया है। बेताम्बर विद्वानों ने तीन ही प्रमाण का फल क्या है? फल दो प्रकार का देवाभास स्वीकार किये हैं। परीक्षामुख में चार होता है-साक्षात्फल और परम्पराफल । साक्षाहेत्वाभास माने हैं-असिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक फल है-अज्ञान की नियत्ति । अज्ञान का नाश और अकिंचित्कर । यह दिगम्बर परम्परा है। होते ही वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । परम्परा
न्याय-शास्त्र में पांच हेत्वाभास माने गये हैं- फल तीन प्रकार के हैं हेय बुद्धि, उपादेय बुद्धि और अनेकान्त, असिद्ध, विरुद्ध, सत्प्रतिपक्ष और अबाधित उपेक्षा बुद्धि । विषयत्व । केशव मिश्रकृत तर्क भाषा में, अन्नं भट्ट प्रमाण का फल. प्रमाण से भिन्न भी है और कृत तक संग्रह में और विश्वनाथकृत सिद्धान्त अभिन्न भी है। क्योंकि जो आत्मा प्रमेय को प्रमाण मक्तावली में पाँच प्रकार के हेत्वाभास स्वीकृत है। से यथार्थ रूप में जानता है. उसी के अज्ञान की हेत्वाभारा का वर्णन न्याय-शास्त्र का एक विशिष्ट मिवत्ति होती है। वही छोडता है, वही ग्रहण करता विषय माना गया है।
है। वही उपेक्षा भी करता है । जैन दर्शन का यही द्रव्य, गुण और पर्याय-ये तीनों जंन दर्शन के कथन है । प्रमाण के विषय में चार बात कही हैंमुख्य विषय हैं। बिना इनके समझे, जैन दर्शन को स्वरूप, संख्या, विषय और फल । इनके विपरीत और न्याय को रामदाना, सम्भव नहीं है । द्रव्य आभास है। आभास चार प्रकार का होगाअर्थात् वस्तु सामाग्य-विशेषात्मक है । सामान्य क्या स्वरूपाभास, संख्याभास, विषयामास और फलाहै ? और विशेष क्या है ? पदार्थ में सदृशता की भास । प्रतीति उत्पन्न करने वाला सामान्य है, और विस- तत्त्वार्थ सूत्र में वाचक उमास्वाति ने कहा हैदृशता की प्रतीति उत्पन्न करने वाला विशेष है। प्रमाण और नय से वस्तु का अधिगम अर्थात् यथार्थ वस्तू का स्वरूप है-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ।। परिबोध होता है। प्रमाण का विवेचन किया जा वस्तु पर्यायरूप से उत्पन्न होती है, और नष्ट भी चूका है । नय का वर्णन करना शेष है । जैन दर्शन होती है। द्रव्य रूप में वह ध्र ब भी है। अतएव में नयों का विशेष वर्णन किया जाता है। नयवाद वस्तु अनेकधर्मात्मक हैं। वस्तु में जो सामान्य अंश अन्य दर्शनों में मान्य नहीं है । अतः नयवाद जैन है, वह द्रव्य है। वस्तु में जो विशेष अश है, वह दर्शन की अपनी विशेषता है । वस्तु को यथार्थ रूप पर्याय है । पर्याय क्या है ? गुण का परिणमन ही में देखने के दो नेत्र हैं-प्रमाण और नय । अतः पर्याय है । सहभावी धर्म गुण कहा जाता है । क्रम- कहा गया है, कि प्रमाण और नय से वस्तु का अधिभावी धर्म को पर्याय' कहते हैं । इस प्रकार की बस्तु गम होता है। ही प्रमाण का विषय होती है।
छठा अध्याय सांख्य सामान्य को मानते हैं, विशेष को नहीं। न्यायरत्नमार के इस अन्तिम छठे अध्याय में बौद्ध विशेष को ही वस्तु मानते हैं, सामान्य को मुख्य रूप से नय, संख्या, फल और तथा भासों का नहीं । जैन सामान्य और विशेष दोनों को वस्तु का वर्णन किया है। नय सप्तभंगी का भी कथन किया धर्म मानते हैं । अतः जैन अनेकान्तवादी हैं, एकान्त- गया है । नयों के भेद-प्रभेद हैं-द्रव्यार्थिक नय और वादो नहीं। वस्तु की सिद्धि अनेकान्त से ही हो पर्यायाथिक नय । शब्दनय और अर्थनय । निश्चय सकती है । वस्तु भेदाभेदात्मक भी है। वस्तु सद- नय और व्यवहारनय ।