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नियुक्ति साहित्य : एक पविक्षण
देवलोक में उत्पत्ति हो। इसके अतिरिक्त मन के अप्रशस्त समाधान से सातवी नारकी का
आयुष्य बंध करना भी समाधिदीर्य है। आत्मवीर्य—आत्मवीर्य दो प्रकार का है-.१. वियोगात्मबीर्य २. अवियोगात्मवीर्य संसारी जीवों के मन
आदि योग वियोगात्मवीर्य हैं। अविणेगात्मवीर्य उपयोग कहलाता है, वह असंख्य आत्म- प्रदेशों
से युक्त है। प्रकारान्तर से निशीय भाष्यकार ने वीर्य के पांच भेद किए हैं
१. बालवीर्य-असंयत का वीर्य | २. पंडितवीर्य- संयत क' बीर्य, संयमवीर्य या पंडिसवीर्य । ३. निरवीर्य-श्रावक का वीर्य, इसे संयमासंयम ठीर्य भी कहते हैं। ४. करणवीर्य उत्थान कर्म, बल एवं शक्ति का प्रयोग करना अथवः मन. ववन एवं काया की
प्रवृत्ति करना। ५. लब्धिवीर्य—जो संसारी जीव अपर्याप्तक अथवा खड़े रहने आदि की शक्ति से राक्त होते हैं. वह
लब्धिदीर्न है : यो भगवान् महातीर में विशाग की लधि को एक देश से पलित कर दिया था। चूर्णिकार के अनुसार इन पंच प्रकार के वीर्य से सर्बानुपाती वीर्य त्याप्ति होता है। निशीथभाष्य में वीर्य के जो भेद हैं, उनमें गुणवीर्य के छोडकर शेष सभी भेद निर्युवित्तकार
द्वारा निर्दिष्ट भावबीर्य के अंतर्गत रखे जा सकते हैं। सम्यक्
सम्यक् का अर्थ है सही लगनः । सात कारणों से कोई भी चीज सम्बक—अच्छी बनती है।' कृत – किसी अपूर्व या विशिष्ट वस्तु का निर्माण, जैसे..-रथ आदि का निर्माण। संस्कृत—जीर्ण-शीर्ण वस्तु को संस्कारित करना। संयुक्त.. दो द्रव्यों का संयोग, जे मन के लिए प्रीतिकर हो, जैसे-दूध और शर्करा का संयोग । प्रयुक्त—जिसका प्रयोग लभ अथवा समाधि के लिए हो । त्यक्त.. जिसको छोड़ना मानसिक प्रसन्नता का कारण हो, जैसे---शिर पर रखे भार को उतारना। भिन्न- जिन द्रव्यों का अलग होनः मानसिक समाधि का हेतु हो, जैसे -दही का पान टूटने पर कौवे
का प्रसन्न होना। छिन्न—अतिरिक्त वस्तु को अलग करना, जैसे—अधिक मांस को काटना। ये सब शारीरिक या
मानसिक समाधि के हेतु हों तो सन्यक हैं, अन्यथा अलम्यक हैं। शुद्धि
दर्शन के क्षेत्र में शौचवादी परम्परा का अपना महत्वपूर्ण स्थान रहा है। ज्ञात्ताधर्मकथा में इसकी विस्तृत चर्चा प्राप्त है। जैन दर्शन बाह्य शुद्धि को धर्म के साथ नहीं जोड़ता अत. भावशुद्धि को अधिक महत्व दिया गया है। दशकालिकनियुक्ति में निक्षेप के माध्यम से
शुद्धि का व्यवहारिक और सैद्धान्तिक विवेचन किया है। वहां द्रव्यशुद्धि के तीन भेद हैं. - १. नेभा ४८. पीठिका पृ. २६, २७ ।
२. आनि २१८. टी. पृ. ११७ ।