Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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स्वाध्याय और सद्-अंसद् विकिनी बुद्धिसे यह प्रमाणित कर दिया है कि सरस्वतीके क्षेत्रमें निरन्तर साधनाकी जितनी महती आवश्यकता और गुरुता है, उतनी गरिमा अनध्याय सम्पृक्त श्वेत उपाधिपत्रोंकी नहीं है ।
श्री नाहटाजीकी प्राथमिक शिक्षाको अभ्यास-पुस्तिकाओंका सम्यक् अवलोकन करनेका शुभ अवसर लेखकको मिला है। अक्षर और अंक इतने सुन्दर हैं कि कहते ही नहीं बनता । श्री नाहटाजीने पाँचवीं तक हजारों पृष्ठ लिख दिये थे । उनके अक्षरोंकी बनावट, आकृति, सुघड़ता उत्तरोत्तर निखरती गई है। अंग्रेजी और बंगालीकी हस्तलिखित वर्णावलि भी अत्यन्त सुन्दर थी।
श्री नाहटाजीके आजके अक्षरों में और बचपनके अक्षरों में चकित कर देनेवाला वैभिन्य और वैषम्य है। भारतके अनेक विद्वानोंकी शिकायत है कि श्री नाहटाजीके हस्तलिखित पत्र वे पढ़ नहीं पाते । एक विद्वान्ने लिखा है "आप लिखें, खुदा पढ़े-अपने लिखेको नाहटाजी स्वयं भी पढ़ने बैठें तो माथा चकराने लगेगा..." ।
लेखकने बचपनके अतिसन्दर सुपाठ्य अक्षर और श्री नाहटाके आजके अतीव दुष्पाठ्य अक्षरोके विषय अन्तरालका कारण जाननेकी भावनासे इस प्रसंगमें चरितनायक महोदयसे वात्तालाप किया था। वार्ता प्रसंगमें उसे आभास हुआ कि श्री नाहटाजी इस तथ्यसे पूर्णतः अवगत है कि उनके अक्षर सुपाठ्य नहीं हैं।
उन्होंने इस विषम परिवर्तनके लिए अनेक कारण संकेतित किये, जिनमें से कतिपय निम्नांकित है
१. अज्ञात सामग्रीको शीघ्रसे शीघ्र प्रकाशमें लानेकी ललक। शोध-जिज्ञासूको प्रायः ऐसी चीजें मिलती रहती हैं, जिनके सद्यः प्रकाशनका लोभ वह संवरण नहीं कर सकता। जिस किसी भी क्षण अलभ्य वस्तु उपलब्ध होती है, उसके विषयमें तत्क्षण लिखनेका मानसिक आग्रह बन जाता है-और हर समय किसी नियुक्त-वेतनभोगी लेखकका उपलब्ध होना सम्भव नहीं होता। इसलिए अधिकांश सामग्री-स्वहस्तसे और वह भी कुछ ही मिनटोंकी परिधिमें लिखकर समाप्त करना मेरे लिये आवश्यक नैतिक बन्धन बन जाता है; फलस्वरूप मेरे हाथोंको अत्यन्त द्रतगतिसे सक्रिय होना पड़ता है। और अल्प समयमें अधिकसे अधिक लिखना पड़ता है । इस द्रुतगामिताके कारण मेरा अक्षर-विग्रह बिगड़कर दुष्पाठ्यकी सीमाका स्पर्श करने लगा है।
२. श्री नाहटाजीने स्वाक्षरोंको दुष्पाट्य बनाने में अपने दस घंटेके निरन्तर दैनिक स्वाध्याय और विविध पत्रिकाओंके लिए लिखे जाने वाले लेखों तथा प्रतिदिन उत्तर चाहने वाले दर्जनों पत्रोंको भी कारणभूत बताया। वे स्वाक्षरोंमें औसतन तीन लेख, एक दर्जन पत्र और दस-पाँच पन्नोंका लेखन कार्य करते ही हैं । इसलिए अक्षरोंकी बनावटमें बहुत शीघ्र परिवर्तन आ गया। उनका यह महद् लेखन अनुदिन बढ़ रहा है। इसलिए उनके अक्षर कभी सुपाठ्य हो सकेंगे, यह सोचना केवल कल्पना मात्र है।
हमारे चरितनायकके शैशवसम्बन्धी भोलापनकी बातें भी परिवारमें कही और सुनी जाती हैं । माता चुन्नीदेवी कहा करती थीं कि "जितने अधिक वर्ष (५ वर्ष) तक मेरे स्तनोंका पान अगरचन्दने किया, उतने अधिक वर्षों तक मेरी और किसी संतानने नहीं किया। एक दिन जब अगरू स्तनपान करनेके लिए हमेशाकी तरह मेरे पास आया तो मैंने स्तनोंको वस्त्रावत कर निषेधकी हस्तमुद्रा दिखाते हुए कहा "बोबा तो गमग्या" और भोले अगरचन्दने उन्हें हमेशाके लिए गया हुआ समझ कर भुला दिया" ।
सं० १९७६-७७में अपनी माता-पिताके साथ जोधपुर गये । वहाँ अभयराजकी चिकित्सा वैद्य लच्छीरामकी चल रही थी।
संवत् १९८० में हमारे चरितनायक अपने अग्रज श्री भैरूंदानजीके विवाहमें झज्झ गये। यह गाँव बीकानेरसे पश्चिममें ३५ मीलकी दूरी पर बसा है। बरात ऊँटों पर गई। धनपतियोंकी बरातके ऊँट और
१. श्री जमनालाल जैन वाराणसी, 'नाहटाजी : एक जीवन्त संग्रहालय' ।
२८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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