Book Title: Mukti ka Amar Rahi Jambukumar
Author(s): Rajendramuni, Lakshman Bhatnagar
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 16
________________ ४ | मुक्ति का अमर राही : जम्यूकुमार गगी । उसके सौन्दर्य-गम्पन्न गुग्रमण्टन पर महना दतामा प्रलेप ने कान्तिहीनता बिवर दी थी जोक गीर गमी थी। आर्य सुधर्मास्वामी जीवाम उपस्थित होने से न पायर अवसर पर धारिणीदेवी महना ही दुनित और चिलित हो उठी है-इसके पीछे क्या कारण है, उससे उपभवन भनिन मा । इस गम्भीर और कोमन परिस्थिति में उसे गया करना नाहिएवह इस विषय में कुछ भी निश्चय नहीं गा ! वह जानना था कि मान्त्वना एवं प्रबोधन नी ऐने अवमर्ग पर पाणिोदेवी के अवपाद को और अधिक गहग बना देता है। अस्त, प्रेष्टि ऋपभदत्त ने धारिणी का ध्यान अन्यन शेन्द्रित करने के प्रयोजन मे आर्य सुधर्मास्वामी की महत्ता का प्रमग छेड़ दिया, किन्तु नय भी धारिणीदेवी तटस्थ एव गम्भीर ही बनी रही। रथ नीनगति से अग्रसर होता चला जा रहा था । रथ-चक्र की अपेक्षा तीव्रगति से चक्रित हो रहा था धारिणीदेवी का चिन्तामग्न मन । श्रेष्ठि ऋपमदत्त भी एक अचिन्त्य अवमाद मे महसा ही डूबने-उतराने लगा। चलते-चलते रथ एक झटके के साथ रुक गया । धारिणीदेवी एव ऋषभदत्त के मुखो पर उत्साह की आभा विकीर्ण हो गयी, किन्तु श्रेष्ठि ने जव वाहर झांका तो उसे ज्ञात हुमा कि अभी तो रथ मार्ग मे ही है और इनका गन्तव्य स्थल अभी काफी दूर है। उत्साह का स्थान कुतूहल ने ले लिया। श्रेष्ठि सारथी से पूछना ही चाहता था कि रथ क्यो रोक दिया गया, कि उसी समय उस का एक परम मित्र सम्मुख आ गया और जिज्ञासा के लिए अव

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