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जन्म-पूर्व : परिवार एवं परिस्थितियाँ | ३
ने कभी 'माँ' का सम्बोधन सुना। यह श्रेष्ठि-दम्पति सन्तान-सुख से वचित थे। यह अभाव इतना तीव्र था कि कभी-कभी तो यह समस्त उपलब्ध अपार सुख-सुविधाओ के प्रभाव को ही समाप्त कर देता था। यही कारण था कि प्राय धारिणीदेवी का चित्त गहन चिन्ताओ मे निमग्न हो जाता, उसके मुख पर घोर दुख की छाया मँडराने लगती और उसे एक असह्य रिक्तता का आभास होने लगता था। अपनी गोद का सूनापन धारिणीदेवी के लिए सारे संसार को ही सूना-सूना बना दिया करता था। इस अभाव के कारण वह स्वय को अत्यन्त अभागिनी मानती थी। अपने वैभव के प्रति असारता का भाव उसके मन मे जागरित हो गया था। वह सोचा करती कि अन्तत इस सम्पदा का उत्तराधिकारी कौन होगा । क्या मेरे भाग्य मे मातृ-सुख बदा ही नहीं है ।
श्रेण्ठिदम्पति ने आर्य सुधर्मास्वामी के आगमन का सुसमाचार जब सुना, तो अतीव हर्पित एव प्रफुल्लित होबर उन्होने भी आर्यश्री के चरण-उन्दन और उनकी वाणी से शान्ति लाभ करने का निश्चय किया। दोनो पति-पत्नी ने यथासमय रत्न-जटित स्वर्ण रथ पर आरूढ होकर गन्तव्य स्थल की ओर प्रस्थान किया। चचल और शक्तिशाली अश्व रथ को त्वरा के साथ दौडाये जा रहा था । यह शोभाशाली और अलकृत रथ मानो ऋषभदत्त को प्राप्त अपार वैभव का प्रतीक ही था । रथ को देखकर धारिणी देवी को अपनी अक्षय सम्पत्ति का और सन्तति के अभाव मे उसकी असारता का स्मरण हो पाया। उसके मन का सुषुप्त सन्ताप जागरित हो उठा और वह एक गहन खिन्नता से घिर