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श्री वीतराग सर्वज्ञ, देवेन्द्रों से पूजित, वस्तुतत्त्व के यथार्थ प्ररूपक, तीनों लोकके गुरु, अरिहंत भ'वंत को मैं नमस्कार करता हूँ। जे एवमाइक्खंति इह खल प्रणाई जीवे, अणाई जीवस्स . भवे प्रणाइकम्मसंजोगनिव्वत्तिए, दुक्खरूवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे ।
वे कहते हैं, जीव अनादि है, उसका संसार अनादि है, उस संसार (भवभ्रमण) के कारणभूत कर्मसंयोग की परंपरा भी अनादि है । वह संसार दुःखरूप, दुःखफलक और दुःख की पर परा वाला है। एयस्स णं वुच्छित्तो सुद्धधम्मानो, सुद्धधम्मसंपत्ती पावकम्मविगमानो, पावकम्मविगमोतहाभम्वसाइभावानो।
इस भवभ्रमण का अंत शुद्ध धर्म से, शुद्ध धर्मकी प्राप्ति पापकर्म के नाश से और उनका नाश तथाभव्यत्वादि भावोंसे होता है । तस्स पुण विषागसाहणाणि चउसरणगमणं, दुक्कड गरिहा, सुकडाणासेवणं
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