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४४॥
मैं तो ज्ञान दृष्टि करी, जाणु सकल सरूप । पाडोशी मैं एह का, नहीं मारूं ए रूप ॥४४।। मैं तो चेतन द्रव्य हं, चिदानंद मुज रूप । ने तो पद्गल पिंड है, भरमजाल अंधकूप ।।४५।। सडण पडण विद्ध सणो, अंह पुद्गल को धर्म । थिति पाके खिण नवि रहे, जाणो एहिज मर्म ॥४६॥ अनंत परमाणु मिली करी, हा शरीर पर्याय । वरणादिक बहु विध मिल्या, काले विखरी जाय ॥४७॥ पुद्गल मोहित जीव को, अनुपम भासे अह । पण जे तत्त्ववेदी होये, तिनको नहीं कछु नेह ॥४८॥ उपनी वस्तु कारमी, न रहे ते थिर वास, प्रेम जाणी उत्तम जना, धरे न पुद्गल पास ॥५६॥ मोह तजी समता भजी जाणो वस्तु स्वरूप, पुद्गल राग न कीजिये, नवि पडिये भवकूप ।।५।। वस्तु स्वभावे नीपजे, काले विणसी जाय । करता भोक्ता को नहीं, उपचारे कहेवाय ॥५१।। तेह कारण एह शरीर सु, संबंध न माहरे कोय । मैं न्यारा एहथी सदा, प्रा पण न्यारो जोय ।।५२।। अह जगत में प्राणिया भरमे भूल्या जेह । जाणी काया पापणी, ममत धरे अति तेह ।।५३।।
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