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अल्पकाल अायु तुमे, देखो दृष्टि निहाल । संबंध नहीं तुम मुज बिचे, मैं फिरता संसार ॥२४६।। भावी भाव सबंध थी, मैं भया तुमका पुत्र । पंथी मेलाप तणी परे, मे स'सारह सूत्र २५.।। श्रेह सरूप संसार का, प्रत्यक्ष तुम देखाय। ते कारण ममता तजी, धर्म करो चित्त लाय ॥२५२॥ काल आहेडी जगत में भमतो दिवस ते रात ! तुमकूपण ग्रहो कदा, श्रे साचो अवदात ॥२५४॥ प्रेम जाणी संसार की, ममता कीजे दूर । समता भाव अंगोकरो, जेम लहो सुख भरपूर ॥२५॥ धरम धरम जग सहु करे, पण तस न लहे मर्म। शुद्ध धर्म समज्या विना, नवि मिटे तस भम ॥२५॥ कटिक मणि निरमल जिसो, चेतन को जे स्वभाव । धर्म वस्तुगत तेह छे, अवर सवे परभाव ॥२७॥ रागद्वेष को परिणति, विषय कषाय संजोग । मलिन भया करमे करी, जनम मरण पाभोय ॥२५८॥ मोह करम की गेहलता, मिथ्या दृष्टि अंध । ममता शुमाचे सदा, न लहे निजगुण संग ॥२५६।। परम पच परमेष्ठि को, समरण अति सुखदाय । अति आदरथी कीजिये, जेहथी भवदुखि जाय ॥२६॥
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