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जो अब ग्रह शरीर की, ममता करोए भाई । थिति राखीए तेहसु, दुःखदायक बहु थाय ।।२३३१ सुर असुरों को देह ए, इद्रादिक को जेह । सब हि विनाशिक एह छे, तो क्यु कर वो नेह? ।।२३४18 इंद्रादिक सुर महाबली, अतिशय शक्ति धरत । थिति पूरण थये तेह पण, खिण एक को उ न रहंत॥२३५॥ ए हवा पराक्रम का धणो, जब थिति पूरण होय । काल पिशाच जब संग्रहे. राखी न शके कोय ॥९३९।।
तेणे कारण मावित्र तुम, तजो मोहक दूर । समता भाव अगी करी, धर्म करो थई शूर ॥२४॥ झूठा एह ससार छे, तिणकु जाणो साच। भूल अनादि अज्ञानकी, मोह करावे नाच ॥२४३।। स्वप्न सरीखा भोग छ, शुद्धि चपला झवकार । डाभ अणी जल बिंदु सम, प्रायु अथिर संसार ॥२४५।। राग दशा से जीवको, निबिड कर्म होय बंध । वली दुर्गतिमा जइ पडे, जिहां दुःखना बहु धंध॥२४०॥ मुज़ ऊपर बहु मोहथी, तुमकु अति दु:ख थाय । पण प्रायु पूरण थये, किसीशु ते न रखाय ॥२४८॥
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