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रूपातीत स्वभाव जे, केवल सण नाणोरे । ते ध्याता निज प्रातमा,होय सिद्धगुण खाणोरे।वोर
केवल दर्शन व केवल ज्ञान सहित, रूपसे रहित (अरूपी) सिद्ध भगवानका ध्यान करने से अपनी प्रात्मा भी सिद्ध के गुणों को खान हो जाती है ।
अप्रमत्त जे नित्य रहे, नवि हरखे नवि शोचेरे । साधु सूधाते प्रातमा, शु मुंडे शुलोचेरे ।।वीर०॥
इष और शोक रहित (दोनों मिट जाने से वीतराग सा) हमेशा अप्रमत रहने वाला आत्मा स्वयं शुद्ध माधु है । फ़िर वह क्या मुडन करे व क्या लोच करे?
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