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मुख्य प्रांतरिक भाव
[यहां दी गई गाथाएं संथारा पोरिसी सूत्र में से ली हैं । श्रावक के लिए पौषधमें तथा साधु के लिए सदैव यह बोली जाती हैं । यही हमारी अंतिम इच्छा, आराधना हो, यही समाधि मरण है।
इसमें दिये गये विचार रोज सोचे और मनमें उतारें तो अंतिम समय यह भावना साकार हो सकेगी-समाधि मरण प्राप्त होगा । इसमें बताई भावना हमेशा दिल में बनी रहे ।]
एगोहं न त्थि मे कोई, नाहमन्नस कस्सई । एवं प्रदीण मणसो, अप्पाणमणुसासई ॥१॥ एगो मे सासयो अप्पा, नाणदंसण संजुम्रो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा।।२।।
'मैं अकेला हं, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसीका नहीं हूं।' दोनता रहित मनसे ऐसा सोचता हुआ अपनी आत्मा को समझावे ।
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