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ज्ञान दर्शन सहित मेरी प्रात्मा अकेली है और शाश्वत है । अन्य सब सिर्फ संयोग से उत्पन्न बाह्य भाव हैं (अतः त्याज्य है)।
संजोग मूला जीवेण, पत्ता दुक्ख परंपरा । तम्हा संजोग सबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरिया।३।।
इन स योगों के कारण से हो यह जीव दु:खकी परंपरा को प्राप्त हुआ है । इसलिए इन सर्व सयोगों की तथा सयोग जनित संबधों को मन वचन काया से वोसिराता हूं, छोडता हूं-भूल जाता हूँ ॥३॥
सव्वे जीवा कम्मवस, चउदह राज भमत । ते मे सब खमाविमा, मुज्झवि तेह खमंत ।।४।।
सर्व जीव कर्मवश होने से चौदह राजलोक में भटक रहे हैं। उन सब से मैं क्षमा चाहता हूँ, वे भी मुझे क्षमा करें ॥४॥
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