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एहबा उत्तम गुरु तणो, पुन्यथी जोग जो होय। अंतर खुली एकांतमें, निशल्यभाव होय सोय ॥३४६॥ एहवा उत्तम पुरुष को, जोग कदी नवि होय । तो समकित दृष्टि पुरुष, महा गंभीर ते जोय ॥३४७॥ एहवा उत्तम पुरुष के, आगे अपनी बात । हृदय खोल के कीजिये, भरम सका अवदात्त ॥३४८॥ योग्य जीव उत्तम जिके, भवभीरू महाभाग । अहवो जोग न होय कदा, कहेणे को नहीं लाग॥३४॥ अपना मन में चितवे, दुष्ट करमवश जेह । पाप करम जे थाई गयू,बहविध निदे तेह ।।३५॥ श्री अरिहंत परमातमा, बलौ श्री सिद्ध भगवंत । ज्ञानवंत मुनिराजनी, वली सुर सकिलवंत ॥३५१। इत्यादिक महा पुरुष की, साख करी सुविशाल । वली निज प्रातम साखसु, दुरित सधे असराल |३५२१ मिथ्या दुष्कृत भली परे, दीजे त्रिकरण शुद्ध । एणी विध पवित्र थई पछे, कोजे निर्मल घुद्ध ॥३५३ अवश्य मरण निज मन विषे, भासन हुए जाम । सर्व परिग्रह त्याग के, पाहार चार तजे ताम ॥३५४|| जो कदि निर्णय नदि हवे, मरण तणो मनमाही । तो मर्यादा कीजिये, अल्पकाल की ताही ॥३५॥
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