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करे मजूरी कोइ दिन, कबहिक माने भीख । कबहिक पर सेवा विधे, दक्ष थई घरे शोख ॥२.८६।। एणि विध खेल करे घणा, पुत्र पुत्री परिवार | स्त्री प्रादि साथे रहे. नगर माही तेणी वार ||२८६॥ वरी कटक प्राव्यु घणु, नासण लाग्या लोक । तब ते सुर एम चितवे, इहां होशे बहु शोक ॥२६॥ प्रेम विचार करी सवे. चाले पाधी रात एक पुत्रकु कांध पर, बोजाकु ग्रहे हाथ ॥२६॥ नगर प्रमारू घेरियु, क्यरी लश्कर प्राय । तिण कारण अमे नासिया,लही कुटुष समवाय ॥२६५॥ एम अनेक प्रकार का, खेल करे जग माही । पण चितमें जाणे इस्यु', मैं सदा सुख माही ।।२६७। मैं तो बारमा कल्पको, देव महा ऋद्धिवंत । अनोपम सुख बिला सदा, अद्भुत ए विरतत ॥२६॥ ए चेष्टा जे में कारी, से सवि कौतुक झाल। रक परजाय धारण करी, तिणको ए सविसाज ॥२६॥ जैम सुर एह चरित्रने, मयि धरे ममता भाव । दीन भाव पण नवि करे, चितवे निज सुर भाव ॥३०॥ एणि विध पर परजाय में, मैं जे चेष्टा करत । पण निज शुद्ध सरूपकु, कबहुं नहीं विसरत ।।३.१॥
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