Book Title: Mukti Ke Path Par
Author(s): Kulchandravijay, Amratlal Modi
Publisher: Progressive Printer

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Page 107
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिहत सिद्ध परमातमा, शुद्ध सरूपी जेह ।। तेहना ध्यान प्रभाव थी, प्रगटे निज गुण रेह ॥२६२।। श्रीजिन धर्म पसायथी, हुई मुझ निर्मल बुद्ध। प्रातम भली परे प्रोलखी, अब करूं तेहने शुद्ध ।। २६३। तुमे पण अह अंगोकरो, श्री जिनवर को धर्म । निज मातमकुभली परे, जाणी लहो सवि.मर्म ॥२६४।। ओर सवे भ्रमजाल है, दुखदायक संवि साज | तिनको ममता त्याग के, प्रव साधो निज काज ॥२६॥ भव भव मेली मूकिया, धन कुटुंब संजोग । वार ममता अनुभव्या, सवि संजोग विजोग ।।२६६।। अज्ञानी अपातमा, जिस जिस गतिमें जाय । ममता वश तिहां तेहवो, हुई रही बहु दुख पाय ।।२६७॥ महातम अह सवि मोह को, किणविध क ह्यो न जाय। अनंत काल श्रेणी परे भमे,जन्म मरण दुख दाय॥२६८॥ प्रेम पुद्गल परजाय जेह, सर्व विनाशी जाण । चेतन अविनाशी सदा, श्रे ना लखे.प्रजाण ॥२६६।। मिथ्या मोहने वश थई, जूठे को भी साच । कहे तिहां अचरज किशो, भव मंडप को नाच ॥२७०॥ जिनको मोह गलो गयो, भेद ज्ञान लही सार । पुद्गल की परिणति विषे, नवि राचे निरधार ॥२७॥ For Private And Personal Use Only

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