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विधन रहित गुण राखवा, तिण कारण सुण मित्त । स्नेह शरीर को छांडीए. एह विचार पवित्र ॥ १३८ ॥ एह शरीर के कारणे, जो होये गुण का नाश एह कदापि ना कीजिए, तुमकुं कहुं शुभ भाष ॥ १३६|| एक दृष्टांत कोई विदेशी वणिक सुत, फरतां भूतल मांहा । रत्न द्वीप आत्री चढ्यो, निरखी हरख्यो तांही ॥ १४१ ॥ तृण काष्टादिक मेलवी, कुटी करी मनोहर । तिणमें ते वासो करे, करे वणज व्यापार ।। १४३ || रतन कमावे प्रति घणां, कुटी में थापे एह । एम करतां केई दिन गया, एक दिन चिंता अछेह | १४ || कुटी पास अग्नि लगी, मनमें चिते एम । बूझवु प्रति उद्यम करो, कुटी रतन रहे जेम । १४५ ॥ किवि प्रति शनी नहीं, तत्र ते करे विचार । ग्राफिल रहना अब नहीं, तुरत हुआ हुशियार ।। १४६ ।।
रत्न संभालु आपणां एम चिती सवि रत्न । लेई निजपुर मावियो करतो बहुविध जन ॥ १४८ ॥
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सुख विलसे सब जातका, किसी उणम नहीं तास । देवलोक परे मानतो, सदा प्रसन्न सुख वास ।। १५० ।।
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