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परिवार को अवसर लही अब मैं हमा, निर्भय सर्व प्रकार । प्रातम साधन अब करू, निसंदेह निरधार ।। १६१।। शुद्ध उपयोगी पुरुष को, भासे मरण नजीक । तव जंजाल सब परिहरी, पाप होवे निर्मीक ॥१६।। इस विध भाव विचार के, प्रान दमय रहे सोय । आकुलता किस विध नहीं, निराकुल थिर होय ॥१६३।। अाकुलता भव बीज है, इणथी वधे ससार । जाणो अाकुलता तजे, उत्तम प्राचार | १९४|| संजम धर्म अंगी करे, किरिया कष्ट अपार । तप जप बहु वरसां लगे, करी फल मच अपाग॥१६५।। प्राकुलता परिणाम थी, क्षणमें होय सहु नाश । समकित वंत प्रेम जाणीने, प्राकुलता तजे खास॥१९६॥
प्राकूलता कोई कारणे, करवी नहीं लगार । श्रे ससार दु ख कारणो, इनकुदूर निवार ।।१८।। निश्चे शुद्ध स्वरूप की, बितन वारंवार | निज सरूप विचारणा, करवी चित्त मझार ॥१६६ ॥ निज सरूप को देखवो, अवलोकन पण तास । शुद्ध सरुप विचारवो, अतर अनुभव भास ॥२००।।
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