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प्रेम जाणी निज रूपमें, रहूं सदा सुख वास । और सब ए भवजाल है, इससे हुम्रा उदास ॥१२७॥ किसी का प्रश्न
एह शरीर निमित्त है, मनुष्य गतिके मांह | शुद्ध उपयोग की साधना, इससे बने उछाह ॥ १२६ ॥ येह उपगार चित्त आण के, इनका रक्षण काज । उद्यम करना उचित है, अह शरीर के साज ॥१३०॥
उत्तर
तुमने जो बात कही, मैं भी जानु सव ।
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ग्रह मनुष्य परजाय से गुण बहु होत निगवं ।। १३२ । । शुद्ध उपयोग साधन बने, और ज्ञान अभ्यास । ज्ञान वैराग्य की वृद्धिको, श्रेह निमित्त है खास ॥१३३ | इत्यादिक अनेक गुण, प्राप्ति इणथी होय ।
अन्य परजाये एहवा, गुण बहु दुर्लभ जोय ॥१३४।। पण श्रेह विचार में, कहेणे को ए मर्म एह शरीर रहो सुखे, जो रहे संजम धर्म ॥१३५॥ अपना संजमादिक गुण, रखणा एहिज सार । ते संयुक्त काया रहे, तिनमें को न प्रसार ।। १३६ ।। मोकु एह शरीरसु, वेर भाव तो नाहीं । एम करतां जो नवि रहे, गुण रखणा तो उछाहीं ॥। १३७ ॥
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