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ऐसा स्वभाव जाणी करी, मुझ को नहीं कुछ खेद । शरीर अह असार का, इणविध लहे सह भेद ।।७।। सडो पडो विध्वंस हो, जलो गलो हुनो छार । अथवा थिर थई ने रहो, पण मुजको नहीं प्यार ||७७।। ज्ञान दृष्टि प्रगट हुई, मिट गया मोह अंधार । ज्ञान सरूपी प्रात्मा, चिदानंद सुखकार ।।७८।। निज सरुप निरधार के, मैं हुअा इसमें लीन । काल का भय मुझ चित नहीं, क्या कर शके अंदीनः७६। इसका बल पुद्गल विषे, मुझ पर चले न कांय । मै सदा थिर सास्वता, अक्षय पातम राय ।।८०॥ पातम ज्ञान विचारतां, प्रगट्यो सहज स्वभाव । अनुभव अमृत कुड में, रमण करूं लही दाव ॥१॥ मातम अनुभव ज्ञान में, मगन भया अंतरंग । विकल्प सब दूरे गया, निर्विकल्प रसरंग ॥१२॥ आतम सत्ता एकता, प्रगट्यो सहज सरूप । ते सुख त्रण जगमें नहीं, चिदानंद चिद्रूप ॥८॥ सहजानंद सहज सुख, मगन रहूं निश दोश । पुद्गल परिचय त्याग के, मैं हुआ निज गुण ईश ।।४।। देखो महिमा एह को, अद्भुत अगम अनुप ।। तीन लोक की वस्तु का, भासे सकल सरूप ॥२५॥
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