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निर्मल जेम अाकाशकू, लगे न किणविध रंग । भेद छेद हुए नहीं, सदा रहे ते अभंग ।।६६॥ तैसे चेतन द्रव्य में, इन को कबहन नाश । चेतन ज्ञानानंद मय, जडभावी आकास ।।१७।। दर्पण निर्मल के विषे, सब वस्तु प्रतिभास । तिम निर्मल चेतन के विषे सर्व वस्तु परकास ॥१८॥ इण अवसर यह जानके, मैं हुअा अति सावधान । पुद्गल ममता छांडके, धरूं शुद्ध प्रातम ध्यान ||६|| प्रातमज्ञान की मग़नता, अहिज साधन मूल । अम जाणो निज रूप में, करू रमण अनुकूल ||१००॥ निमलता निज रूपकी, किमही कही न जाय । तीन लोक का भाव सब, झलके जिनमें ग्राय ॥१७॥ ऐसा मेरा सहज रूप, जिन वाणी अनुसार । प्रातम ज्ञाने पायके, अनुभव में एकतार ||१०२।। मातम अनुभव ज्ञान जे, तेहिज मोक्ष सरूप । ते छंडी पुद्गल दशा, कुण ग्रहे भव कूप ।।१०३।। प्रातम अनुभव ज्ञान से, दुविधा गई सब दूर । तब थिर थई निज रूपको, महिमा कहुं भरपूर ॥१०४॥ शांत सुधारस कुड ए, गुण रत्नोंकी खाण। अनंत ऋद्धि प्रावास ए, शिवमंदिर सोपान ||१०||
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