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कोई अनिष्ट हो या इष्ट न हो तो (३) दीनता न करे । मन न बिगाड़े । (४) इष्ट प्राप्ति पर हर्ष का अतिरेक न हो । प्राप्त वस्तु जड़ है, विनश्वर है, रागांध बनाकर ससार वृद्धि का कारण है, ऐसा समझे । (५) बुरा प्राग्रह-कदाग्रह न करे। अतत्व में मन ने रोके तथा (६) अतत्त्व में से मन उठाकर
आगम अनुसार उचित तात्त्विक बात या वस्तु में मन लगावे। - अच्छा कार्य करे, पर मन बिगाडे, गलत बाते सोचे, न मिल सकने लायक चीजों की इच्छा किय करे, अनर्थ दड के विचार करे या उचित व्यवहार करे या दान शील करे पर मन बिगाड़े तो यह सब अनुचित है। केवल मन बिगाड़ने से तदुलमत्स्य सातवीं नरक में जाता है।
अब वचन से - असत्य या पीडाकारी न बोले, झूठे आक्षेप न करे । खूब पुण्य से प्राप्त जीभ से असत्य या अभ्याख्यान के कोयले क्यों चबाये? देव या पूर्व महर्षियों के गुणगान में इसे क्यों न लगावें? वचन कठोर न होकर मृदु हो । विकथा न करे, निंदा कुथली में न पड़े। जो बोले वह हितकर तथा मित -प्रमाण युक्त हो।
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