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न हो अर्थात् विरुद्ध प्राचरण न हो। फिर उसका उचित अमल करना चाहिये । अतः अरुचि से नहीं पर धन्य समझ कर बहुमान पूर्वक । इससे पुराने कुसस्कार मिटकर सुसंस्कार की वृद्धि होकर उनकी परंपरा प्राप्त होती है । कुप्रवृत्तियां मिटकर सुप्रवृत्तियों से जीवन भर जाता है ।
पडिवन्नधम्मगुणारिहं च वट्टिज्जा गिहिसमुचिसु गिहिसमाचरेसु परिसुद्धाणुट्टाणे, परिसुद्धमण किरिए, परिसुद्धवइकिरिए, परिसुद्धकायfeरिए ।
कल्याणमित्र ही सेवा योग्य हैं यह निश्चय किया। उनकी प्राज्ञा के परत त्र बने । इससे प्रनादि स्वेच्छाचारिता द्वारा उत्पन्न कर्म की पराधीनता मिटकर उससे स्वतंत्र होने के द्वार खुल गये । अब मोह की यह ताकत नहीं कि वह खींच सके ।
धर्मगुणों के समर्थक सेवादि के साथ धर्मगुणों के अनुसार, उन्हें शोभा दे, वैसा व्यवहार - मनवचन काया का होना चाहिये। जीवन भी कषाय व शल्य रहित बनना चाहिये । वाणी में असत्य, प्राक्षेप
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