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उसका श्रेष्ठ उपाय है। यही मोहछेदक सयम योग तथा संयम के विशुद्ध अध्यवसाय की जनक है । ___ एवं विसुज्झमाणे भावणाए कम्मापगमेणं उवेगइएअस्स जुग्गयं । तहा संसार विरत्ते संविग्गो भवइ, अममे अपरोवतावी, विसुद्ध विसुद्धमाण भावे ॥ इतिसाहुधम्मपरिभावणासुत सम्मत्त ॥२॥
इस प्रकार विशुद्ध भावना करता हुया श्रावक कर्म के अनेक बधन तोड डालता है और उस कर्म नाश से साधुधर्म को योग्यता प्राप्त करता है। इस तरह के सोच विचार व चिंतन से ससार से विरागी बनकर मात्र मोक्ष का इच्छुक बनता है। अब संसार की किसी वस्तु से उसे ममत्व नहीं है। वह परपरिताप (पर पीडक) सं दूर हो जाता है । सर्व के प्रति अनुकंपा वाला वह रागद्वेष के ग्रन्थि भेद से शुभ अध्यवसायों को वृद्धि से अधिकाधिक विशुद्ध बनता जाता है।
इस तरह साधु धर्म परिभावना नामक द्वितीय सूत्र समाप्त हुना।
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