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कर्कशता आदि न हों। काया से अंगोपांग की चेष्टा बीभत्सता, क्रूरता उद्भट वेश आदि रहित तथा मनकी विचारधारा भी पवित्र व शुद्ध हो ।
वजिजाणेगोवघायकारगं, गरहणिज्ज बहुकिलेसं, प्रायइविराहगं, समारंभं । न चितिरजा परपीडं। न भाविजा दीणयं । न गच्छिज्जा हरिसं । न सेविज्जा वितहाभिनिवेसं । उचियमणपवत्तगे सिमा । न भासिज्जा अलिनं न फरसं, न पेसुन्नं, नाणिबद्ध। हिअमिप्रभासगे सिमा ।
उपरोक्त सामान्य बात हुई । अब विशेष अनुष्ठान कहते हैं । प्रथम मानसिक - जिसे साधूधर्म की याने महा अहिंसा, महासयम की परिभावना करना है वह (१) संसार की हिंसा के प्रारंभसमारभ के संकल्प न करें, लोकनिंद्य कार्य, कर्मादान, जुमा आदि न करे । (२) पर को जरा भी पीडा का विचार भी न करे (क्योंकि परपीडा स्वयं को ही पीडाकारी है ।) शत्रु परभी मैत्रीभाव रखे ।
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