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पहले पाप का प्रतिघात करके धर्मगुण के बीज का आरोपण करें। फिर साघु धर्म की परिभावना, 'खना, इच्छा व तैयारी करें ( दूसरा सूत्र ) । तब साधु धर्म ग्रहणकर उसे पालें तो फल मोक्ष मिलेगा । यदि यह क्रम न लेकर उलटसुलटी कार्य किया तो सब प्रयास वृथा होगा । ससार, भव का भ्रमण चालू रहेगा । क्रमिक प्रयास रहित साधु धर्मं की प्राप्ति भी गुणप्राप्ति न होकर गुणाभास बन सकती है ।
भवाभिनदो जीव जिसे भव या संसार में ही आनन्द है, अपने दूषणों के कारण गुणबीज के पवित्र पदार्थ की प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करता । धर्म करके भी, दीक्षा लेकर भी वह संसार ही बढायेगा | भावाभिनन्दी के आठ दुर्गुण हैं :
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क्षुद्रो लोमरतिर्दीनो, मत्सरी भयवान् शठः । अज्ञो भवाभिनन्दी स्यात् निष्फलारंभ स गतः ॥ १॥
उसका हृदय क्षुद्र, तुच्छ होता है । वहाँ श्रद्धा नहीं होती, तत्त्वरुचि नहीं होती । तत्त्व की बातें गले उतरनी चाहिये, टिकनी चाहिये । (२) लाभ होने पर वह खुश होता है। लोभ अच्छा है, करना चाहिये यदि कहता है, सोचता है, यह है लोभरति ।
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