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है । अतः हमें इससे बचना चाहिये । मुक्तिसुख की शंका गिद्धों के प्रति दुष्कृत है । ज्ञान की शका भी यही है ।
पूर्व दुष्कृतों की सच्ची गर्दी के लिए हृदय की मृदुता जरूरी है। अत: अहंभाव का त्याग आवश्यक है । चतु: शरण से यह प्राप्त होता है, पर वह सच्चे दिल से हो, हमेशा, हर समय हो । तभी तो अनेक जन्मों के कर्म जो पाप की परपरा के सर्जक हैं, वे वंध्य बनकर निर्बीज बनेंगे ।
अह का त्याग, कोमल नम्र हृदय, दोषों का तिरस्कार, स्वछन्द व निर कुश वृत्तिको दबाना व उसमें कमी, दोष तथा दोषित आत्मा की दुगंछा, दोषों के पोषक कषायों के उपशम सहित उनके प्रति द्वन्द्वी क्षमादि धर्मों का पालंबन व उन गुणों की प्राप्ति आवश्यक है।
मेरी दुष्कृत की गहीं सम्यक व हार्दिक हो मात्र शाब्दिक नहीं । अर्थात् वे जराभी प्रच्छे या करने लायक नहीं लगे । साथ ही उनके किसी भी प्रकार से पुनः न करने का मुझे नियम हो।
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