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मुक्ति के निकट हैं तथा शुद्ध प्राशय वाले हैं, उनके मार्ग (मोक्ष) साधक योगों की अनुमोदना करता है। मार्गानुसारिता सम्यक दर्शनादि योग तथा श्रावक के गुण वगैरे आत्मा पर से मोह के हटने से ही प्राप्त होते हैं। अतः उन दुर्लभ और पवित्र योगों का अनुमोदन करने योग्य है और करने से हमें लाभ होता है।
अब मैं प्रणिधान गृद्धि करता है। प्रणिधान याने कर्तव्य का निर्णय और अभिलाषा तथा मनकी एकाग्रता । इसकी शुद्धि का यह तरीका है ।
श्रेष्ठ लोकोत्तर गुणों से युक्त श्री अरिहंतादि के सामर्थ्य से मेरी यह अनुमोदना सम्यक विधि वाली हो ( ऐसी मेरी इच्छा हैं ), तीव्र मिथ्या त्वादि कर्म विनाश से सम्यक याने शुद्ध प्राशय वाली हो; उसमें पौद्गलिक आशसा न हो, दभरहित तथा विशुद्ध भाववाली हो। वह सम्यक् प्रतिपत्ति रूप (स्वीकार) तथा निरतिचार हो ।
अनुमोदना को पाप प्रतिघातक व गुणबीजाधान की साधक बनाने का यहाँ क्रम बताया है। प्रार्थ्य पुरुष की लोकोत्तर उत्तमता से प्रार्थना करने वाले
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