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दुष्कृत की गहीं व प्रकरण नियम (या चतुः शरण व गाँ) के प्रति मुझे बहुमान पूर्वक रुचि हो । मैं देव और गुरुकी हित शिक्षा व अनुशास्ति की इच्छा करता हूँ। देव और गुरु का मुझे उचित म योग हो, यह भी उनकी कृपा से ही होगा। अत: सतत सयोग के लिए उत्तम प्रार्थना हो । उत्तम वस्तुकी प्रार्थना भी अलभ्य, अमूल्य और अनत उपकारक हैं । उससे हृदय नम्र होकर शुभ अध्यवसाय जाग्रत होते हैं, जिससे मिथ्यात्वादि पाप का नाश होकर मोक्षबीज की प्राप्ति होती है, जो मोक्ष पर्यन्त शुभ कर्म पर परा जीवित व अखन्ड रखता है। मैं देव-गुरु की बहुमान पूर्वक सेवा करने लायक बन्। सेवासे ही सेवक सेव्य की आज्ञा का पात्र बनता है । जिनाज्ञा ही शिव सुन्दरी का संकेत है। मैं ऐसी प्रतिपत्ति वाला - स्वीकार - भक्ति बहुमान और समर्पणवान बनू । इससे उनकी आज्ञाका निरतिचार पालक बन्। समर्पण बिना स पूर्ण स्वीकार असंभव है।
इन दो उपायों के सेवन से मैं मोक्ष तथा मोक्षमार्ग का अर्थो (स'विग्न) बनकर यथा शक्ति
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