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पडिवज्जिऊण पालणे जइजा, सयाणागाहगे सिया, सयाणाभावगे सिपा,सयाणापरतंते सिया।
ये धर्मगुण रत्न की पेटी या महामत्र के समान हैं । अतः उनका पालन व रक्षा प्रयत्नसहित, कष्ट उठाकर भी करना चाहिये । अनन्तकाल बाद मिले होने से तथा थोड़े प्रयत्न से (इस भवके) भविष्य के अनन्त काल के लिए लाभकारक होंगे । सांसारिक कार्य व लक्ष्मी के लिए जो प्रयत्न होता है, उससे भी अत्यन्त ज्यादा प्रात्माके सच्चे रत्न समान गुणों की प्राप्ति व रक्षा के लिए आवश्यक है।
पालन की विधिमें जिनाज्ञा के ग्राहक, भावक तथा परतत्र बनें । जिनाज्ञा क्या है उसे जानने के लिए उसका अध्ययन श्रवण करना और उसके वितक बनकर आज्ञा से प्रात्मा को भावित करना अर्थात् अोतप्रोत हो जाना चाहिये । इससे जगत की वस्तुओं के परतत्र बनने के बजाय अधिकाधिक जिनाज्ञा के परतत्र अर्थात् जो कुछ वह आज्ञा कहे वैसा ही करने वाले बन जाये।
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