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करे । तीव्र स ंक्लेश - गाढ उद्वेग, तीव्र रति, अरति - इसका बारबार सेवन करें तथा संक्लेश रहित स्वस्थ अवस्था में भी रोज त्रिकाल इन तीनों साधनों का सेवन करें ।
रागद्वेष, प्रति हर्ष या अर्थात् तोत्र कषायों में
चतुः शरण का स्वीकार भावपूर्वक होना चाहिये। मुझे शीघ्र मुक्ति मिलना चाहिये यही भाव दिल में रहना चाहिये । इससे ही प्रशुभ कर्म के अनुबन्धक मिथ्यात्व तथा भवरुचि प्रश्रवों का त्याग होता है । यही पाप प्रतिघात है यहो अनुबन्ध को तोडने वाला तथा उसे शिथिल करने वाला है । फिर तो गुणबीज प्रात्मभू में पडेगा ही न ?
जीवनभर परिहंत का शरण हो । वे देवाधिदेव त्रिलोकनाथ हैं। श्रेष्ठ तीर्थंकर नाम कर्म के पुण्य सहित हैं, तभी हर समय जन्म से ही देव देवी उनकी सेवा करते हैं और केवल प्राप्ति बाद करोडों देव हर समय हाजिर होते हैं। उनके राग, द्वेष तथा मोह का संपूर्ण नाश हो चुका है (अतः भी यह गुण मिले) वे चिन्तामणि रत्न की तरह चिन्तित वस्तु देने वाले ही नहीं, देने वाले ही नहीं, प्रचित्य पदार्थों
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