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के दाता भी है । भवजलधि से तारक पोत( जहाज) समान हैं । वे संपूर्ण रूपसे शरण लायक हैं । अतः अष्टमहाप्रातिहार्य वाले अरिहत मेरे शरणरूप ( रक्षक) हों
अजरामर, कम कलक रहित, सर्वथा बाधा (व्याघात) रहित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, मोक्षपुरी में स्थित अनुपमेय, (असांयोगिक, सहज) सुख सहित, सर्वप्रकार से कृतकृत्य (सवं प्रयोजन सिद्ध) सिद्ध भगवतों का मैं शरण लेता हूँ । भूख, तृषा, वेदना, इच्छा अज्ञान, आदि सर्व दोष रहित होने से परम तत्व हैं. परम सेव्य है । वे ही मेरे लिए शरण हैं ।
प्रशांत तथा गंभीर प्राशय वाले क्षमाधारी साधु शरण हों। उनका चित्त प्रशांत हैं तथा गंभीर (क्षुद्र नहीं) चित्तवाले हैं । संसार की सर्व सावध (पापकारी) प्रवृत्ति से रहित हैं। षट्काय जीव संहार के करने करवाने से ही नहीं, अनुमोदन से भी वे दूर हैं। पंचाचार के ज्ञाता, परोपकार में रक्त हैं। उनका उपकार भी शुद्ध है, बदले की भावना से रहित हैं तथा सम्यक्त्व दानरूप भाव उपकार होने से अन्तिम है । साधु काम कीचड़ से उत्पन्न, भोग
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