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तथा भव्यत्व के परिपाक के साधन तीन है :चार शरण, दुष्कृत गर्दा तथा सुकृतानुमोदन । अरिहतादि चार के शरण ही सच्चे शरण हैं, सर्व आपत्ति में से बचने का श्रष्ठ उपाय है । सभी दुष्कृतों की पश्चात्तापपूर्वक गुरुसाक्षः से गर्दा कर्मों के अनुबन्ध तोडने की अमोघ शक्ति रखती है । सुकृत की प्रासेवना-उत्तम गुणों की अनुमोदना प्रात्मा में गुण उत्पन्न करती है।
तथा भव्यत्वादि (काल, नियति, कर्म तथा पुरुषार्थ सहित पांच कारण) भावों के अनुकूल सयोग की प्राप्ति से पाप कर्मों का विशिष्ट नाश (पुनः उत्पन्न न हों वैसे) होता है। औचित्य, यानन्य, प्रादर तथा विधि चारों सहित इन तीनों उपायों के सेवन से पाप का प्रतिघात होकर गुणबीज का प्रारोपण प्रात्मा में होता है। अथवा यों कहिये कि इन तीन उपायों के विधि प्रादि चारों सहित सेवन से तथा भव्यत्व का परिपाक होता है, जिससे पाप नाश होकर शुद्ध धर्म की प्राप्ति होने से भव का, जो दुःख रूप, दु:खफलक व दुःखानुबन्धी हैं, नाश होता है। इसीलिए मोक्षार्थी जीव सुप्रणिधान पूर्वक इसका सेवन
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