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तो हमारा लक्ष्य शून्य परिभ्रमण मिटकर हम सच्चे रास्ते पर आ जाते हैं । हम आज तक गलत दिश में चल रहे थे, उसके बदले सच्ची दिशा में जाने लगते हैं । मानवभव इसीलिए अत्यन्त कीमती है कि वह सच्ची राह पर चलने का प्रयत्न करे उसका प्रारंभ करे । यहाँ इसी सच्ची दिशा का दर्शन किया गया है । __इस संसार (भवभ्रमण)का उच्छेद (अन्त)शुद्ध धर्म से होता है । उस के लिए ये चार वस्तुए जरुरी हैं। (१) औचित्य - शुद्ध धर्म की प्राप्ति के लिए औचित्य प्रावश्यक है । उदा० अनुचित आजीविका या अयोग्य बर्ताव से प्रात्मा कठोर बनता है। औचित्य पालन से मुलायम बनी हुई आत्मा में ही धर्म अन्दर उतरेगा। अन्यथा धर्म साधना से भी अनादि कुसंस्कार नहीं मिटेंगे। (२) सतत - मिथ्यात्व, अज्ञान, हिंसादि पाप तथा अविरति से अनन्त भूतकाल में सतत धाराबद्ध पाप प्रवृत्ति होती रही है और ये चारों दृढ बने हैं। अतः इन्हें मिटाने के लिए सत्प्रवृत्ति भी सतत होनी चाहिये । जोसे दीर्घ रोग के लिए सतत औषध सेवन । (३) सत्कार- पादर रहित किये कार्य की कोई कीमत नहीं। राग के सादर सेवन से ही
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