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समय में देखते हैं ।
देव पान्वभव प्राप्त
पर्याय केवल ज्ञानी एक ही प्रभु देवे पूजित हैं । कर के पथ के समान शुद्ध भाव सहित उनके समान शुद्ध चारित्र की प्राप्ति के लिए प्रभू की जा करन हैं । 'दीक्षा केवलने अभिलाषे नित नित जिन गुण गावे ।"
जो तत्त्व प्रभु को मिला, उसे यथास्थित जीवों के हितार्थ सभी जीवों के सन्मुख रखा । प्रभु नव तत्त्व के प्ररूपक तथा त्रिपदी ( सर्व वस्तु उत्पन्न होती है, टिकती हैं तथा नष्ट होती हैं) के उपदेशक हैं। प्रभु के इस रूप के स्वीकार से मोह की प्रबलता घटती हैं ।
जिन के स्वयं के कर्म जलकर बोज रहित हो चुके हैं वे (ग्ररुहत ) भगवत कहते हैं: - (१) जीव अनादि काल से हैं, (२) जीव का सौंसार अनादि काल का है और (३) वह संसार अनादि काल से चले आने वाले कर्मों के संयोग से बना हैं । अतः वह संसार ( १ ) दुखरूप है ( २ ) दुःख फलक (फलस्वरूप दु:खद ) हं और ( ३ ) पर ंपरा ( अनुबन्ध) का सर्जक हैं ।
दुःख की
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