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निष्फल है, क्योंकि उसे उसका आनन्द या शांति नहीं।
इन सब दोषों को हटाने के लिए खास सावधान रहना जरूरी है। दुगुणों का अभ्यास अनन्त कालसे है। इन दुगुणों के प्रतिद्वंद्वी गुण उदारता, संतोष धीरज आदि बड़ी कठिनाई से आते हैं। पंचसूत्र स्वीकार करने के पहले ये दोष हटने चाहिये। भवाभिनन्दिता तथा इन दोषों से तत्त्व की रुचि नहीं होती, सच्चा तत्त्व उसे समझ में ही नहीं पाता। कम से कम इन दोषों को पहचानना, उनका अपने में होने का स्वीकार तथा दूर करने की इच्छा अति
आवश्यक है । पंचसूत्र महान रसायन है। रसायन दोष रहित शरीर में पचता है । अत: पंचसूत्र भी लायक को हो समझ में आता है, लायक को ही दिया जाता है।
साधना को इमारत की रचना पाप प्रतिघात आदि क्रम से ही हो सकती है। पहले इन दुर्गुणों का नाश, इस साधना क्रम पर श्रद्धा तथा इस क्रम के अनुसार धम पुरुषार्थ होना चाहिये । पुन: कहें तो क्रम है-गुणबीजारोपण, साधुधर्म की परिभावना
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