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तहा प्रासगलिन्जंति परिपोसिजति निम्मविजंति सुहकम्माणुबंधा, साणुबंध च सुहकम्म पगिट्ठ पगिट्ठभावज्जियं नियमफलयं, सुप्पउत्ते विव महागए सुहफले सिया, सुहपवत्तगे सिया, परमसुहसाहगे सिया।
तथा इस सूत्र पाठ अनुप्रेक्षादि से शुभ कर्म बंध के भाव प्रकट होते हैं, शुभ कर्मबद्ध होता है, शुभकर्म की परंपरा पुष्ट होती है और उत्कृष्ट शुभ कर्म का बंध होता है । शुभ भावपुष्ट होते हैं, निश्चित रूपसे शुभ फलदायक बनते हैं और प्रात्मा सुखोपभोगपूर्वक परम शुभ (मोक्ष) का साधक बन जाता है। अग्लो अपडिबधमेय असुह भावनिरोहेण सुहभावबीयति सुप्पणिहाण' सम्म पढियव्व,सम्म सोयवं सम्म अणुपेहियवति।
इससे प्रतिबंधरहित , अशुभभाव का निरोधक यह सूत्र शुभ भाव के बीज बोता है, अतः इसे प्रणिधानपूर्वक अच्छी तरह पढना चाहिये, सुनना चाहिये और सभ्यक अनुप्रेक्षा करना चाहिये ।
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